सनातन आस्था के केंद्र और भारतीय संस्कृति, संस्कार और धर्म की अद्भुत शक्ति है कुंभ, जो अगले बरस फिर आयोजित होने जा रहा है। हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार, कुंभ मेला 12 वर्षों के दौरान चार बार मनाया जाता है। कुंभ मेले का आयोजन 4 तीर्थ स्थलों में होता है। ये स्थान हैं: उत्तराखंड में गंगा नदी पर हरिद्वार, मध्य प्रदेश में शिप्रा नदी पर उज्जैन, महाराष्ट्र में गोदावरी नदी पर नासिक और उत्तर प्रदेश में गंगा, यमुना और सरस्वती तीन नदियों के संगम प्रयागराज में। इस मेले का इतिहास लगभग 850 साल पुराना है। तो वहीं, कुछ दस्तावेज बताते हैं कि कुंभ मेला 525 ईसा पूर्व में शुरू हुआ था। वैदिक और पौराणिक काल में कुंभ तथा अर्धकुंभ स्नान में आज जैसी प्रशासनिक व्यवस्था का स्वरूप नहीं था। आइए आपको इस मेले के इतिहास और इससे जुड़ी पौराणिक कथाओं के बारे में आपको बताते हैं।
850 साल पुराना है कुंभ मेले का इतिहास
कुंभ मेले का इतिहास कम से कम 850 साल पुराना है। माना जाता है कि आदि शंकराचार्य ने इसकी शुरुआत की थी, लेकिन कुछ कथाओं के अनुसार कुंभ की शुरुआत समुद्र मंथन के आदिकाल से ही हो गई थी। दरअसल समुद्र मंथन के दौरान अमृत कलश निकला था जिसे प्राप्त करने के लिए अमृत कलश देवताओं और असुरों के बीच युद्ध हुआ था. अमृत कलश अगर दानवों के पास पहुंच जाता तो वो अमर हो जाते. कथा के अनुसार, जब देवताओं और असुरों ने अमृत प्राप्त करने के लिए समुद्र मंथन किया, तो उस मंथन से अमृत का घट निकला. अमृत को पाने के लिए देवताओं और असुरों के बीच युद्ध छिड़ गया, जिसके चलते भगवान विष्णु ने अपने वाहन गरुड़ को अमृत के घड़े की सुरक्षा का काम सौंप दिया. गरुड़ जब अमृत को लेकर उड़ रहे थे, तब अमृत की कुछ बूंदें चार स्थानों – प्रयागराज, हरिद्वार, उज्जैन और नासिक में गिर गईं. तभी से हर 12 वर्ष बाद इन स्थानों पर कुंभ मेले का आयोजन होता है.
अमृत कलश के लिए देव और असुरों में 12 दिनों तक चला युद्ध
मान्यता है कि देवताओं और असुरों के बीच 12 दिवसीय युद्ध हुआ, जो मानव वर्षों में 12 वर्षों के बराबर माना गया है. इसलिए, हर 12 साल में कुंभ का आयोजन होता है. अब आपको बताते हैं कि कुंभ नाम के पीछे का इतिहास क्या है…कुंभ मेला दो शब्दों “कुंभ” और “मेला” से बना है. “कुंभ” का अर्थ है अमृत से भरा हुआ कलश, जिसे देवताओं और दानवों द्वारा समुद्र मंथन के दौरान प्राप्त किया गया था. “मेला” का अर्थ है सभा या मिलन, जिसमें श्रद्धालु बड़ी संख्या में जुटते हैं. सैकड़ों वर्षों से लगता आ रहा ये मेला भारतीय संस्कृति में आस्था का प्रतीक बन चुका है.हालांकि कुंभ मेले का आरंभ कब हुआ, इसका सटीक प्रमाण तो नहीं है, लेकिन इस महोत्सव का सबसे प्राचीन वर्णन 7वीं शताब्दी में सम्राट हर्षवर्धन के काल का मिलता है, जिसका उल्लेख चीनी तीर्थयात्री ह्वेनसांग ने किया है.
मत्स्य पुराण में भी कुंभ का उल्लेख
महाकुंभ का सबसे पुराना उल्लेख प्रयाग महात्म्य में मिलता है इसके अलावा, मत्स्य पुराण में भी प्रयाग की तीन नदियों—गंगा, यमुना, और सरस्वती—के संगम पर स्नान की परंपरा का विशेष उल्लेख किया गया है. कुंभ मेले का उल्लेख भागवत पुराण, विष्णु पुराण, महाभारत और रामायण में भी मिलता है. कुंभ मेला दुनिया का सबसे बड़ा शांतिपूर्ण समागम है. हर 12 साल में चार बार क्रमिक रूप से गंगा पर हरिद्वार में, शिप्रा पर उज्जैन में, गोदावरी पर नासिक और प्रयागराज, जहाँ गंगा, यमुना और सरस्वती का संगम है, होता है.अर्ध कुंभ मेला हर छह साल में हरिद्वार और प्रयागराज में होता है, जबकि महाकुंभ मेला, एक दुर्लभ और भव्य आयोजन है, जो हर 144 साल में होता है।
प्रयागराज का कुंभ सबसे प्राचीन
चारों कुंभ मेलों में प्रयागराज का कुंभ सबसे प्राचीन माना जाता है. प्रयाग को हिंदू धर्म में बहुत पवित्र माना गया है और इसे “तीर्थराज” भी कहा जाता है. महाकुंभ को एक धर्म विशेष के लोगों के आयोजन के तौर पर देखना ठीक नहीं है, बल्कि ये तो भारत की संस्कृति और आध्यात्मिकता का जीवंत संगम है, जो लोगों में उनकी आस्था के प्रति जागरुकता और उसे पुनः जागृत करने का अवसर प्रदान करता है, साथ ही एकता और एकजुटता का पाठ पढ़ाता है. महाकुंभ में जाना अपने आप में सभी श्रद्धालुओं के लिए एक अविस्मरणीय अनुभव होता है ऐसे में जीवन में आपको जब भी अवसर मिले आपको अवश्य जाना चाहिए।
