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क्या हिंदू बोर्ड में भी होंगे मुस्लिम? सुप्रीम कोर्ट ने तिरुपति बालाजी का जिक्र कर SG मेहता से क्यों पूछा

बिलकुल! नीचे इस विषय पर एक विस्तारपूर्ण ब्लॉग है जो इस संवेदनशील और महत्वपूर्ण मामले को सरल और निष्पक्ष तरीके से समझाता है:


क्या हिंदू बोर्ड में भी होंगे मुस्लिम? सुप्रीम कोर्ट ने तिरुपति बालाजी का जिक्र कर SG मेहता से क्यों पूछा – जानिए पूरा मामला

हाल ही में सुप्रीम कोर्ट में एक बेहद अहम और दिलचस्प बहस हुई जिसने धर्म, संविधान और धार्मिक संस्थाओं के प्रशासन को लेकर कई सवाल खड़े कर दिए। मामला ज्ञानवापी मस्जिद विवाद से जुड़ा हुआ है, लेकिन इसमें एक मोड़ तब आया जब सुप्रीम कोर्ट ने तिरुमाला तिरुपति देवस्थानम बोर्ड (TTD) का ज़िक्र करते हुए सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता से सीधा सवाल पूछ लिया —
“क्या हिंदू ट्रस्ट में भी मुसलमान सदस्य रखे जाते हैं?”

तो आखिर यह सवाल क्यों पूछा गया? और इसका तिरुपति मंदिर से क्या संबंध है? चलिए पूरे मामले को बारीकी से समझते हैं।


मामला क्या है?

ज्ञानवापी परिसर को लेकर विवादित ढांचा और उसके इतिहास पर लंबे समय से विवाद चला आ रहा है। इस संबंध में वक्फ बोर्ड और हिंदू पक्ष दोनों अपनी-अपनी दावेदारी कर रहे हैं।

विवाद का एक पहलू यह है कि मुस्लिम समुदाय के लोगों को ‘श्रृंगार गौरी स्थल’ के प्रबंधन या ट्रस्ट से बाहर रखा जाए, क्योंकि यह स्थल हिंदू आस्था का केंद्र माना जाता है। इसी बहस के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने बड़ा सवाल उठाया कि जब हिंदू धार्मिक स्थलों पर केवल हिंदू ही बोर्ड के सदस्य होते हैं, तो फिर मुस्लिम धार्मिक स्थलों पर भी क्या यही नियम लागू नहीं होना चाहिए?


तिरुमाला तिरुपति बालाजी का ज़िक्र क्यों आया?

सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने SG तुषार मेहता से पूछा:

“क्या आप हमें एक उदाहरण दे सकते हैं, जहां किसी हिंदू ट्रस्ट में मुसलमानों को बोर्ड का सदस्य बनाया गया हो?”

यहां कोर्ट ने तिरुमाला तिरुपति देवस्थानम बोर्ड का नाम लेकर उदाहरण मांगा। यह देश के सबसे समृद्ध और प्रतिष्ठित मंदिरों में से एक है और इसका प्रबंधन एक विशेष ट्रस्ट करता है, जिसमें अधिकांशतः हिंदू ही सदस्य होते हैं।

इस सवाल का इशारा इस ओर था कि यदि हिंदू धार्मिक संस्थानों के प्रशासन में गैर-हिंदू नहीं होते, तो क्या मुस्लिम धार्मिक संस्थानों में भी गैर-मुस्लिमों को जगह दी जानी चाहिए?


कोर्ट का संकेत क्या था?

सुप्रीम कोर्ट की बेंच यह स्पष्ट करना चाह रही थी कि:

  • धार्मिक ट्रस्ट या बोर्ड का गठन धार्मिक आस्था और परंपराओं के अनुसार होता है।
  • यदि किसी एक समुदाय की आस्था के स्थल में दूसरे समुदाय के लोगों को प्रबंधन में शामिल नहीं किया जाता, तो यह तर्क दूसरे समुदाय पर भी लागू हो सकता है।

यह धर्मनिरपेक्षता के संविधानिक सिद्धांत और धार्मिक स्वतंत्रता (Article 25-28) के बीच संतुलन बनाने की कोशिश थी।


SG तुषार मेहता का जवाब

SG मेहता ने इस पर कोर्ट को बताया कि:

  • धार्मिक आस्थाओं का सम्मान सर्वोपरि है।
  • बोर्ड में कौन होगा, यह संबंधित धार्मिक विश्वास और परंपरा के अनुसार तय होता है।
  • उन्होंने तिरुपति ट्रस्ट में किसी मुस्लिम सदस्य का उदाहरण नहीं दिया — यह इस बात की पुष्टि थी कि वहां केवल हिंदू सदस्य ही होते हैं।

निष्कर्ष: यह बहस क्यों मायने रखती है?

इस पूरे घटनाक्रम से कुछ अहम सवाल उठते हैं:

  • क्या धर्म-आधारित ट्रस्टों में केवल संबंधित धर्म के ही लोग होने चाहिए?
  • क्या ‘धर्मनिरपेक्षता’ का मतलब यह है कि हर धार्मिक संस्था में हर धर्म के लोगों को शामिल किया जाए?
  • और सबसे जरूरी — क्या न्यायपालिका इन मामलों में संतुलन बैठा सकती है, बिना किसी धार्मिक भावना को ठेस पहुंचाए?

यह मामला सिर्फ ज्ञानवापी का नहीं, बल्कि भारत में धार्मिक प्रशासन की प्रकृति और संविधान के धर्मनिरपेक्ष ढांचे पर गहरे असर डाल सकता है।


क्या आप मानते हैं कि धार्मिक संस्थाओं के ट्रस्ट में केवल संबंधित धर्म के लोग होने चाहिए?

कमेंट कर के अपनी राय ज़रूर बताएं।

 

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Author: newsviewss

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